Independent Poem - 2
चाँद और मैं -
अधूरी हूँ मैं और मेरी तरह यह चाँद भी ,
आदतन हम पूरा होने के लिए,
पूर्णिमा का इंतज़ार करते है ,और,
आमावस्या से बढ़ते हुए इंच -ब - इंच ,
अपने कदमों के आकार को बढ़ाया करते है,
पर कई अनजान रातो में इस अँधेरे से डरकर ,
राहें भटक भी जाया करती हैं ,
पूर्णिमा कितनी दूर है अभी, का
दर्द याद दिलाया करती हैं ,
वो मदमस्त अपनी मस्ती में ,
मेरा इंतज़ार किया करती हैं ,
बेख़ौफ़ अपनी अमावस्या पर,
विश्वास किया करती हैं,
वो मुझे प्यार किया करती हैं,
ये टिमटिमाते तारें बहुत सी चुगलियां किया करते हैं ,
मेरे और पूर्णिमा के रिश्ते को अपनी रौशनी से टिमटिमा के रखते है
ग्रहण का नाम देकर मुझपे कलंक लगाया करते हैं ,
मेरे अंधकार को और अँधेरा दिया करते हैं ,
पर जिद्दी , बद्तमीज़ और खुदगर्ज़ प्यार की तरह
मैं हर रोज़ थोड़ा कदम बढ़ाता हूँ ,
अपनी पूर्णिमा के विश्वास को हर महीने
पूरा करने उसमे छुपकर खुद पूरा होजाता हूँ,
हाँ मैं अपनी पूर्णिमा से प्यार किया करती हूँ।
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