Independent poem - 3

 हां कमअकल हूँ , नम्बरों की इस  दूनिया में ,
गिनती आती  नहीं मुझे,पर अपनी हर याद का
हिसाब - किताब  रखती हूँ,
मोल - भाव का अ -ब -स नहीं पता मुझे,
फिर भी  खरीदारी करती हूँ ,
हाँ मैं शायरी करती हूँ।

दर्द को बेहिसाब लफ्जों में बयान करती हूँ ,
रोज़ मरती हूँ , रोज़ हिसाब करती हूँ,
 मरती भावनाओ को जिवंत शब्द देकर ,
तालियां बटोरा करती हूँ ,
हाँ मैं शायरी करती हूँ।

इतना आसान नहीं हैं ऐ सरकारी आदम ,
रोज़ी -रोटी की दौड़ -भाग नहीं ,
अपने दिल के मर्ज़ का इलाज़ करती हूँ ,
हाँ मैं शायरी करती हूँ।

एक रोज़ तू भी करेगा पर देख सरकारें काम ना आएंगी ,
अपनी चीख़ , चिल्लाहट और घुटते दम के बीच तेरी कलम तुझे बुलाएगी ,
बस इसी डर , खौफ और पागलपन के इस चोले में  मैं अटका  करती हूँ ,
हाँ मैं शायरी करती हूँ।




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