Response poem 1: Yatish
( a translation to the poem Dacca Gauzes by Agha Shahid Ali)
ढाका का मलमल
...साल
भर वह सबसे बेहतरीन ढाका के मलमल
इकट्ठा करने की कोशिश में लगा रहा.
-ऑस्कर वाइल्ड, पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे
ढाका का वो महीन
मलमल
शाम की ओस; बहता पानी;
बुनी हुई हवाओं सा
नामोनिशां उस फ़न का
बचा नहीं
सौ साल हुए उसे लुप्त
हुए
दादी अक्सर कहती है
“एहसास
उसको छूने का
उसे पहनने का
कोई अब क्या जाने”
माँ के दहेज़ से
विरासत में मिली
उन्होंने भी
एक बार
पहनी थी वो साड़ी
जो खालिस साबित हुई
तब
जब पूरी की पूरी छह गज
एक अँगूठी के भीतर से
पार निकल आयी
सालों बाद जब साड़ी
तार-तार होने लगी
उससे बने कई रूमाल
जो सजे हुए थे
सुनहरे धागे से बनी
केरी की आकृतियों से
और बंट गए
बहुओं और भांजियो
में
वो भी अब गुम हो
चुके हैं
इतिहास में
हमने पढ़ा था
हाथ बुनकरों के
कलम कर दिए गए
हथकरघा बंगाल के
खामोश कर दिए गए
अंग्रेजो ने कपास सारा
इंग्लैंड की मिलों
में भिजवाया
इतिहास दादी के लिए
बेमतलब है बेमानी है
वो बस इतना कहती है
आजकल का मसलिन
कितना मोटा कितना
खुरदुरा
है और उस ज़माने के
मलमल
का एहसास
कोई तभी पा सकता है
जब शरद ऋतु में भोर
भये
कोई नमाज़ के लिए
जागे
वो कहती हैं “ एक
सुबह
मानो हवा में ओस का
कलंफ़ लगा था”
अनमने अंजाने में ही
दादी ने उसे अपनी
अँगूठी के भीतर से
पार निकाल दिया
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