प र्बत चोटियों पर हवाएँ चली आती हैं कभी-कभी, हलचल करती, बिनबुलाये, यूँ ही | सुकून?... अब क्या बताएँ! जैसे आ जाती है कभी-कभी, तुम्हारी याद, बिनबुलाये, यूँ ही |
सुनो, तुमसे ज़रा सी बात कहनी थी वैसे तो बहुत सारी बात कहनी थी तुमने जाते वक्त क्यूँ कुछ न बोला कम-स-कम थोड़ी ही बात कहनी थी जो हुआ सो हुआ खैर छोडो, तुम बताओ क्या तुम्हें भी कोई बात कहनी थी? क्यूँ बके जा रहा हूँ आज ये सब जानता हूँ! ज़रा जल्दी बात कहनी थी फ़ोन पर तेरी आवाज़ की ताक़ रहती है मगर "हेलो ! airtel customer? आपसे ही बात कहनी थी" टिंडर पे हूँ आजकल, कोई है (?) जिसे मुझसे कभी कोई बात कहनी थी 'रफ़ि' ये ग़ज़ल सिर्फ कोर्स के लिए लिखी या सच में उसे कोई बात कहनी थी
; क़ैदी हैं हम इन दीवारों के अरसों तक बंद रहा करते हैं कुछ बंद हुए हैं दरवाज़ों से खिड़की से झांका करते हैं। इन दीवारों में दरारें हैं जो रोज़ गवाही देती हैं हम क़ैदियों की चीख़ों को ख़ामोश होते सुनती हैं। ग़र ना कसे हों बेड़ियों में पत्थर को काटा करते हैं जो लेश बने सांसों में चुभ कर तन धराशाई करते रहते हैं । इन टूटती दीवारों के गुनहगार तो हम ही हैं मलबे तले कारागार दफ़न है खंडहर भी यूं तो हम ही हैं ।
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