Independent Poem 1 : Manya

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क़ैदी हैं हम इन दीवारों के
अरसों तक बंद रहा करते हैं
कुछ बंद हुए हैं दरवाज़ों से
खिड़की से झांका करते हैं।

इन दीवारों में दरारें हैं
जो रोज़ गवाही देती हैं
हम क़ैदियों की चीख़ों को
ख़ामोश होते सुनती हैं।

ग़र ना कसे हों बेड़ियों में
पत्थर को काटा करते हैं
जो लेश बने सांसों में चुभ कर
तन धराशाई करते रहते हैं

इन टूटती दीवारों के
गुनहगार तो हम ही हैं
मलबे तले कारागार दफ़न है

खंडहर भी यूं तो हम ही हैं

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