Independent Poem 2: Ganesh Gautam


ज़मीने गुनगुनाती हैं

ज़मीने गुनगुनाती हैं
जब तेज हवाओं की वो आंधियाँ आती हैं
जब हर एक लाश में जान आ जाती हैं
सारे बंधनों,  कानूनों को तोड़ने का जब जी चाहता हैं
जब मन-मन में शंकाये कौंध जाती हैं
और जब वो प्रतिरोध की सोच शब्दों में उतर आती हैं
तब, ज़मीने गुनगुनाती हैं
ज़मीनें गुनगुनाती हैं।

ये हुंकार है उन दलितों की जो हमेशा मरते रहे
जिनकी लाशों के अम्बार यूँ हमेशा बढते रहे
किस-किस के नाम गिनाऊँ मैं
इतने है कि गिनते-गिनते खुद पागल हो जाऊं में
रविदास और फुले कितना कुछ कर गए
अंबेडकर और काशीराम हमें कितना ऊँचा कर गए
मगर मेरी सांस तब घुटकर रह जाती हैं
जब रोहिथ जैसी एक ओर हत्या हो जाती हैं
तब,  ज़मीनें गुनगुनाती हैं
ज़मीनें गुनगुनाती हैं।

कितना न्यारा है मेरा ये हिंदुस्तान
लाखों ने लुटाई है इस पर जान
मगर कुछ जानों की शायद कोई कीमत नहीं होती हैं
इसलिए उस किसान की अरथि पर उसकी फसल रोती हैं
  बंजर ज़मीन में भी वो जान फूंक देता हैं
पागल तो  नहीं,  क्यों उसको महबूब सा प्यार देता हैं
शायद उसको हमारी जान की परवाह होती हैं
लेकिन उसकी परवाह की कोई कद्र नहीं होती हैं
तब, ज़मीनें गुनगुनाती हैं
ज़मीनें गुनगुनाती हैंं। 

ज.एन.यू., डी.यू., ए.यू.,  एच.यू., ए.एम.यू. में लड़ाई जारी हैं
मगर अब लड़ने की ए.यू.डी. की बारी हैं
प्रशासन करो जो तुम्हें करना हैं
मगर हम छात्रों को तुमसे न डरना हैं
क्रांतियों का दौर है क्रांति आएगी
ए.यू.डी. को भी अपनी खुशबू से महकाएगी
छात्रों से जब भी कोई सियासत टकराती हैं
उनके इरादों से टकराकर चूर-चूर हो जाती हैं
तब,  ज़मीनें गुनगुनाती हैं
ज़मीनें गुनगुनाती हैं।

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